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त्वम॑ग्ने पुरु॒रूपो॑ वि॒शेवि॑शे॒ वयो॑ दधासि प्र॒त्नथा॑ पुरुष्टुत। पु॒रूण्यन्ना॒ सह॑सा॒ वि रा॑जसि॒ त्विषिः॒ सा ते॑ तित्विषा॒णस्य॒ नाधृषे॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvam agne pururūpo viśe-viśe vayo dadhāsi pratnathā puruṣṭuta | purūṇy annā sahasā vi rājasi tviṣiḥ sā te titviṣāṇasya nādhṛṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। पु॒रु॒ऽरूपः॑। वि॒शेऽवि॑शे। वयः॑। द॒धा॒सि॒। प्र॒त्नऽथा॑। पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒। पु॒रूणि॑। अन्ना॑। सह॑सा। वि। रा॒ज॒सि॒। त्विषिः॑। सा। ते॒। ति॒त्वि॒षा॒णाय। न। आ॒ऽधृषे॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:8» मन्त्र:5 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसित (अग्ने) राजन् ! जिससे आप (वि, राजसि) विशेष प्रकाशमान हैं (सा) वह (तित्विषाणस्य) अग्निज्वाला के समान विद्या से प्रकाशमान (ते) आपकी (त्विषिः) दीप्ति है और वह (आधृषे) सब प्रकार से धृष्ट के लिये (न) जैसे वैसे (विशेविशे) प्रजा-प्रजा के लिये (पुरूणि) बहुत (अन्ना) अन्नों को धारण करती है तथा जिससे (त्वम्) आप प्रजा-प्रजा के लिये (पुरुरूपः) बहुत रूपवाले आप (प्रत्नथा) प्राचीन के सदृश (सहसा) बल से (वयः) जीवन को (दधासि) धारण करते हो, उसको विशेषता से जानिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! आप लोग जैसे अग्नि सब जगत् को धारण करता है, वैसे सब मनुष्यों को विद्या के प्रकाश में धारण करो ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे पुरुष्टुताग्ने ! यया त्वं वि राजसि सा तित्विषाणस्य ते त्विषिरस्ति साऽऽधृषे न विशेविशे पुरूण्यन्ना दधाति यया त्वं विशेविशे पुरुरूपस्त्वं प्रत्नथा सहसा वयो दधासि तां विजानीहि ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) (अग्ने) राजन् (पुरुरूपः) बहुरूपः (विशेविशे) प्रजायै प्रजायै (वयः) जीवनम् (दधासि) (प्रत्नथा) प्राचीनेनेव (पुरुष्टुत) बहुभिः प्रशंसित (पुरूणि) बहूनि (अन्ना) अन्नानि (सहसा) बलेन (वि) (राजसि) (त्विषिः) दीप्तिः (सा) (ते) (तित्विषाणस्य) अग्निज्वालयेव विद्यया प्रकाशमानस्य (न) इव (आधृषे) समन्ताद् धृषाय ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! भवन्तो यथाऽग्निः सर्वं जगद्दधाति तथा सर्वान् मनुष्यान् विद्याप्रकाशे धरन्तु ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा अग्नी सर्व जगाला धारण करतो तसे सर्व माणसांसाठी विद्या ग्रहण करा. ॥ ५ ॥